(लेखक-रामेश्वर नीखरा )
(रानी दुर्गावती का बलिदान दिवस 24 जून पर विशेष)
24 जून गोंड वंश की वीरांगना रानी दुर्गावती का बलिदान दिवस है। उन्होंने अपने स्वाभिमान और आत्माधिकार की रक्षा के लिये पलायन या समर्पण की अपेक्षा संघर्ष को चुना। उनका यह चुनाव ही उनके व्यक्तिव की विशेष पहचान बनकर सदियों से इतिहास में दर्ज है। तुलनात्मक रुप से देखें तो मुगल शासन अकबर की तुलना में गढ़ा मंडला राज्य बहुत साधारण सा राज्य था, परंतु उसकी असाधारणता तो उसका नेतृत्व करने वाली रानी दुर्गावती के संकल्प और संघर्षकामी चेतना में मौजूद है।
गेंड राज्य गढ़ा मंडला की तुलना में आकार तथा शक्ति संपन्नता में बढ़े-चढ़े अनेक राज्यों और उनके अधिपतियों में जब फतहपुर सीकरी की सत्ता के आगे अपने घुटने टेक दिये थे, तब एक महिला होते हुए भी रानी दुर्गावती ने आत्माभिमान की रक्षा के लिये संघर्ष और अवश्यंभावी बलिदान का रास्ता अख्तियार किया था।
उनके बलिदान दिवस पर मुझे लगता है कि जरूरत इस बात की है कि इस विषय पर विचार किया जाये कि जिन आदिवासियों के बीच में दुर्गावती, शंकरशाह, बिरसा मुंडा और टंटय़ा भील जैसे लड़ाकू और आत्मगौरव से परिपूर्ण रणबांकुरों की विरासत मौजूद है, वहीं आदिवासी समाज आज अपनी अजीविका की तलाश में और अपने जल जंगल जमीन को बचाये रखने की जद्दों जहद में इतना हलाकान परेशान क्यों दिखाई पड़ रहा है। नि:संदेह, उसका शोषण हुआ है, उसे अधिकार वंचित किये जाने का लंबा लिससिला भी नजर आता है और अपनी सीमितजरूरतों को अर्जित करने में ही उसका पूरा जीवन खपा जा रहा है।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार ने आदिवासियों की समस्याओं के प्रति विशेष संवेदनशीलता दिखायी और उन्हें वाजिब अनुपात में आरक्षण उपलब्ध कराया, विकास की खास योजनाएं बनायी और उन्हें लाभांवित करने के भरपूर प्रयास भी किये। गुजारे हुए 60-70 सालों के दौरान सराकरी कार्यक्रमों में लगातार इजाफा ही हुआ है। केंद्र और राज्यों में अलग से मंत्रालयों तक का गठन हुआ ताकि आदिवासी समस्याओं के निराकरण को खास तवज्जों मिल सके, मगर दुख के साथ इस शर्मनाक यथार्थ को स्वीकार करने के लिये मैं खुले मन से तैयार हूं कि नौकरशाही और बिचोलियों के कारण सरकार के कार्यक्रमों का वास्तवित और शत प्रतिशत लाभ उन्हें नहीं मिल सका।
आदिवासियों के लिये छात्रावासों, शिक्षा के लिये आदिवासी विद्यालयों प्राथमिक स्तर से उच्चस्तर तक की शिक्षा के लिये छात्रवृत्तियों, नौकरियों में आरक्षण, वन भूमि के पट्टों, तेंदुपत्ता संग्रहण में बोनस जैसी विविधतापूर्ण योजनाएं संचालित हो रही है और आदिवासी समुदाय उनका लाभ भी उठा रहा है, पर वह आधा अधूरा सा है। शोषण की सामाजिक व्यवस्था का अदृश्य राक्षस उन्हें ग्रसे हुए है। मुझे कुछ साल पहले डिंडौरी जिले के गाड़ासराई जाने का मौका मिला था, तब मुझे बताया गया था कि व्यापारियों के एक समुदाय की आर्थिक स्थिति पूरे प्रदेश में यदि कहीं सर्वोच्च स्तर पर है तो वह गाड़ासरई में ही है, परंतु जिन आदिवासियों से वनोपज खरीदकर और उन्हें नमक, तेल, शक्कर, कपड़ों का विक्रय करके वे संपन्नता की सबसे ऊंची पायदान पर पहुंच गये, वहीं उनका लंगोटीधारी ग्राहक समुदाय लंगोटी से आगे की आर्थिक स्थिति में न पहंच सका। तो यह अब शोध का विषय बन चुका है कि बिना उत्पीड़न के ही एक व्यवसायगत विधा अरण्यवासियों से बहुत कुछ छीन लेती है और उसे कोई देख तक नहीं पाता।
इनका विकल्प रानी दुर्गावती के व्यक्तिव के उसी पहलु में छिपा हुआ है, जिसने उन्हें स्वाभिमान की रक्षा के साथ संघर्ष और आत्मबलिदान की परिणिति के लिये प्रेरित किया। आदिवासी समाज को प्रेरित होकर अपने हकों के लिये आगे जाना चाहिये, किंतु नक्सलवादी- गतिविधियां जैसी हिंसक प्रवृत्तियों के चंगुल में फंसने से भी अपने को बचाये रखना चाहिये। नक्सलवाद, आदिवासी-असंतोष को भुनाकर राजनीति करने वाला ऐसा आंदोलन बन चुका है, जो अब निजी अहम और नेतृत्व के रोमानी-झुकाव का शिकार बन कर रह गया है। जैसा कि मैं अपने कुछ पुराने लेखों में कह चुका हूं कि केंद्र सरकार को सिर्फ अच्छी योजनाएं बनाकर और धन मुहैया कराकर ही खामोश नहीं बैठ जाना चाहिये, बल्कि योजनाओं के क्रियान्वयन के प्रति कड़ा रूख अपनाते हुए एक सशक्त मानीटरिंग-प्रणाली भी ईजाद करनी चाहिये ताकि फायदा उस अंतिम व्यक्ति तक पहुंच सके। आदिवासियों के हितों के लिये तो इस प्रणाली की खास जरूरत है।