संत व साधु समेत विद्वान जब कहीं जाते हैं तो वहां की अच्छाइंयां भी अपने साथ ही ले आते हैं और फिर जो उनके सानिध्य में आता है वो उसका लाभ उन्हें पहुंचाते हैं। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि क्योंकि जब स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ने अमेरिका यात्रा की तो उन्होंने वहां श्रम के महत्व को समझा। वापस आए तो उन्होंने एक संस्मरण लिखा जिसमें अमेरिकी श्रम को भारतियों के सम्मुख रखते हुए कहा, ‘मेरा जूता फट गया था। मैने मोची के लड़के से उसकी मरम्मत के लिए कहा।’ उसने जवाब दिया, ‘अभी तो मेरे हाथ में पिछला काम है। मैं आपका काम अभी नहीं कर पाऊंगा। यह जरुर हो सकता है कि आप मेरे औजार ले लें और स्वयं ही यहाँ बैठकर अपने जूते मरम्मत कर ले।’ यह सुनकर मैं हैरान हुआ और स्तब्ध रह गया। मेरी स्थिति को भांपते हुए मोची युवक ने कहा ‘आप अवश्य ही भारत से आये मालूम पड़ते हैं। जहाँ काम को छोटा या फिर बड़ा बताने के लिए वर्गों को विभाजित किया जाता है।’ उसने कहा कि ‘मैं एम.ए. का छात्र हूँ। अपना खर्च स्वयं इस व्यवसाय के माध्यम से चलाता हूँ और पढ़ाई भी कर लेता हूँ। आप स्वयं जूते की मरम्मत कर लें। यह बहुत सरल काम है। साथ ही अपने देशवासियों को लौटने पर बतायें कि अमेरिकी नागरिक किस प्रकार श्रम का सम्मान करते हुए खुशहाल रहते हैं।’ उस मोची के बच्चे से यह शिक्षा मिलती है कि श्रम का सम्मान करेंगे तो जीवन में खुशहाल रहेंगे।