किसी भी देश या समाज का भविष्य बच्चों को माना जाता है। बच्चे जितने स्वस्थ और ज्ञान-वान होंगे देश का भविष्य उतना ही सुनहरा होगा। इसलिए प्रत्येक दौर में बच्चों के प्रति संवेदनशीलता बरकरार रही है। चाहे समृद्धि के साथ सुख-शांति का काल रहा हो या किसी युद्ध की विभीषिका लिखे जाने का समय रहा हो, सभी में बच्चे, बूढ़े और महिलाओं को सुरक्षित करने की बात प्रमुखता से होती रही है। फिर ना जाने ऐसा क्या हुआ कि भारत जैसे संस्कृतिवान देश में ही सबसे ज्यादा असंवेदनशीलता बच्चों, महिलाओं और बूढ़ों के मामले में ही देखने को मिल रही है। बच्चों के प्रति बढ़ते अपराध के साथ ही देश में तेजी से खुलते झूलेघर और वृद्धाश्रम इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। दरअसल दिशाहीन विकास की अंधी दौड़ में शामिल होने वाले समाज का यह वह दौर है जहां रिश्ते-नाते अपनी जमीन खोते जा रहे हैं। महिलाएं तो महिलाएं छोटी-छोटी बच्चियां और मासूम बच्चे तक अपने ही घर में खुद को सुरक्षित नहीं पा रहे हैं। कहीं ये शारीरिक तौर पर प्रताड़ित किए जाते हैं तो कहीं इन्हें अपने ऐशो-आराम का सामान यूं कहें कि खिलौना बनाकर रख दिया जाता है। मॉं-बाप कहें या अभिभावक कथित आधुनिक फैशन के चलते अपनी-अपनी जिम्मेदारियों से भागते नजर आते हैं, ऐसे में घात लगाए बैठे अपराधियों को बच्चे आसान शिकार के तौर पर उपलब्ध हो जाते हैं। बच्चों से बढ़ते दुष्कर्म के मामलों को देखते हुए ही कहा जा रहा है कि क्या किसी ने सोचा है कि हम आखिर अपने देश के लिए कौन सा भविष्य तैयार कर रहे हैं? विचार करें कि जिस बच्चे का शरीर विषैले नख-दंत से लहुलुहान किया जा चुका है और जिसकी अंतरआत्मा को मलिन करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई है वह बड़ा होकर आखिर देश और समाज को क्या दे पाएगा। अगर सही कहा जाए तो यह एक ऐसा अपराध है जो भविष्य में अपराधों की बुनियाद रखने वाला होता है, इसलिए इसके दोषियों को सख्त से सख्त सजा देने का प्रावधान होना ही चाहिए। संभवत: यही वजह रही है कि सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: ही इस मामले को संज्ञान में लिया है। बच्चों से दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जाहिर करते सुप्रीम कोर्ट ने मानों बतला दिया है कि वाकई समाज के जिम्मेदार लोग निष्ठुर और असंवेदनशील हो चुके हैं, जिस कारण इस कदर बच्चे प्रताड़ित हो रहे हैं। आपराधिक आंकड़े देखें तो मालूम चलता है कि एक जनवरी से 30 जून के बीच में ही देश में बच्चों से दुष्कर्म की कुल 24,212 घटनाएं हुईं हैं। यह वह संख्या है जिनकी एफआइआर दर्ज है, इसके अतिरिक्त जो मामले पुलिस तक पहुंचे ही नहीं या पहुंचकर भी दर्ज नहीं किए जा सके, उनका कोई लेखा-जोखा नहीं है। एकत्रित की गई जानकारी में बतलाया गया है कि इन कुल मामलों में से 11,981 में अभी जांच चल रही है, जबकि 12, 231 ऐसे मामले हैं जिन पर पुलिस आरोपपत्र दाखिल कर चुकी है लेकिन इनमें से ट्रायल सिर्फ 6, 449 मामलों पर ही चल रही है। 4, 871 मामलों में अभी ट्रायल शुरू भी नहीं हुई है। इसी के साथ ट्रायल कोर्ट ने अभी तक महज 911 मामलों में फैसला सुनाया है जो कि कुल मामलों की संख्या के मुताबिक महज चार फीसदी बैठता है। इस प्रकार महज छह माह में हजारों बच्चों को हबस का शिकार बनाया गया और उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए जिंदा रहते हुए भी मौत से भी घिनौनी जिंदगी जीने को मजबूर कर दिया गया। बहरहाल बताया जा रहा है कि अब अदालत ने ऐसे मामलों से निपटने के लिए ढांचागत संसाधन जुटाने और बेहतर उपाय करने के लिए दिशा-निर्देश तय करने का मन बनाया है। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को संज्ञान में लेते हुए वरिष्ठ वकील वी गिरि को न्यायमित्र नियुक्त कर दिया है। अदालत ने गिरि से आवश्यक दिशा-निर्देश पारित करने के लिए सुझाव मांगे हैं। दरअसल देश के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस की तीन सदस्यीय पीठ ने मामले पर संज्ञान लेते हुए स्पष्ट कहा है कि अखबारों और ऑनलाइन प्रकाशन में बच्चों से दुष्कर्म की घटनाओं और बढ़ते आंकड़ों ने उन्हें परेशान और चिंतित कर दिया है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट की इस पीठ ने देश के सभी राज्यों और उच्च न्यायालयों से बच्चों से दुष्कर्म के मामलों के आंकड़े बुलवाए हैं। कोर्ट द्वारा मंगवाए गए आंकड़ों की यह जानकारी वाकई चौंकाने वाली है, लेकिन इससे क्या क्योंकि देश की दिशा और दशा तय करने वालों की आंखें जब तक नहीं खुलेंगी तब तक इन आंकड़ों के नगाड़े भी किसी का कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगे। इसलिए जरुरी हो गया है कि बच्चों वाले परिवार के सदस्यों को ही जिम्मेदारी के साथ आगे लाया जाए ताकि बेहतर सुरक्षा के साथ बच्चों की अच्छी परवरिश हो सके। पुलिस और जनप्रतिनिधियों के साथ ही साथ समाज के कथित ठेकेदारों को भी इस हेतु जिम्मेदार बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि इनके बगैर अपराधियों पर लगाम कसना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन बात हो जाती है। अंतत: हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि कोई भी मासूम किसी दरिंदे का शिकार न होने पाए।
(लेखक – डॉ हिदायत अहमद खान)