मुक्तसर फरीदकोट जिले के सब डिवीजन का मुख्यालय है। तथा एक खुशहाल कस्बा है। यह प्रसिद्ध तीर्थ स्थान भी है। इसके निकट ही मांझे से आये गुरू गोबिंद सिंह जी के 40 श्रद्धालु सिक्खो ने जिन्हें चालीस मुक्ते कहा जाता है, नवाब वजीर खां की फौजों से जंग करते हुए शहीदी प्राप्त की थी। इसी पवित्र स्थान को मुक्तसर साहिब कहते है।
जब मुगल सेना गुरू गोबिंद सिंह जी का पीछा करते हुए यहां पहुंची थी। तब इन चालीस मुक्तों की शहीदी ने ही मुगल सेना को मुंह तोड़ जवाब दिया था। और उन्हीं शहीदों के नाम पर यह स्थान जो कभी खिदराणे की ढाब के नाम से जाना जाता था अब मुक्तसर साहिब के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
खिदराणे की ढाब की लड़ाई गुरू गोबिंद सिंह जी के जीवन की आखरी लड़ाई थी। यह जंग 29 दिसंबर 1705 को हुई थी। गुरू गोबिंद सिंह जी ने स्वयं शहीदों का संस्कार किया था। जिस समय गुरू गोबिंद सिंह जी शवों को एकत्र कर रहे थे। उनके बीच में से एक भाई महासिंह जोकि गंभीर रूप से घायल थे। उनकी हालत बहुत गंभीर थी परंतु उसकी सांसे गुरू गोबिंद सिंह जी महाराज के दर्शन करने के लिए लालायित थी।
गुरू गोबिंद सिंह जी महाराज ने उसे देखा तो आगे बढ़कर उसका सिर अपनी गोद में रखकर पूछा—- तुम्हारी कोई इच्छा है तो बताओं! महासिंह ने गुरू जी से विनती की कि सच्चे पातशाह जी कृपा करके मेरा बेदावा (त्यागपत्र) फाड़ दे, तथा टूटे हुए सम्बंध जोड़ दे। अपने चरणों से जोड़ने की कृपा करें।
यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि जब गुरू जी आनंदपुर साहिब के किले में मुगल सेना के घेरे में फंसे थे, और युद्ध चल रहा था। तो कुछ सिख मतभेद के चलते गुरू जी को बेदावा (त्याग पत्र) देकर वहां से निकल आये थे।
जब वे अपने गाँव में पहुंचे तो उनकी पत्नियों, परिवार वालों तथा गाँव वालों ने उन लोगों को बहुत फटकारा और कहा कि जब गुरू गोबिंद सिंह जी धर्मयुद्ध लड़ रहे है, तो ऐसे समय में तुम लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया है। ये लोग अपने किये पर बहुत शर्मिंदा हुए।
तब ये लोग माई भागो जी की अगुवाई में पुनः वापस आये तथा यहां खिदराणे की ढाब में मुगल सेना से टक्कर ली तथा शहीदी प्राप्त की और अपने गुरू से टूटा हुआ रिश्ता पुनः जोड गये।
दसवें गुरू गोबिंद सिंह जी ने महासिंह के सामने ही उसकी विनती स्वीकार करते हुए बेदावा फाड़ दिया तथा आशीर्वाद दिया।